प्रकृति या विकृति

                                                                          प्रकृति या विकृति 

ये दोनों ही शब्दों में बस अंतर एक अक्षर और मात्रा का है, किन्तु दोनो ही शब्द एक पुरे दृश्टिकोण को बदल देती है।  प्रकृति जहाँ मनुष्य का गुण होती है वही विकृति उस विशेष गुणों की शत्रु। आज हम अधिकतर विकृतिओं को अपने जीवन में महत्व दे रहे है और अपने मूल प्रकृति से दूर भाग रहे हैं।  इसीकारण हम आज सब कुछ होते हुए भी परेशान है और रो रहे हैं। जबकि देखा जाये तो आज के युग के मनुष्य के पास अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए बहुत से साधन उप्लब्ध हैं, किन्तु फिर भी आज हम अधिक उदासीन हैं।  जबकि हमारे पूर्वजो के पास जीवन यापन के लिए इतनी सुगमता उपलब्ध नहीं थी, परन्तु फिर भी वे हमसे अधीक प्रसन्नचित्त थे।जानना चाहेंगे ऐसा क्यों था , ऐसा इसलिए था क्योकि वो अपने प्रकृति के निकट थे।  आज १० में से ८ व्यक्ति किसी न किसी रोग से ग्रस्त है क्योंकि उसने विकृतिओं को अपनाया है। किन्तु ऐसा नहीं है की हम इसे बदल नहीं सकते अगर इसी क्षण हम अपने प्रकृति पर ध्यान दे तो आज ही हम अपने आप को स्वस्थ, प्रसन्नचित  वयक्ति बना सकते है। आपके मन में ये प्रश्न अवश्य उठ रही होगी की आखिर कैसे ? तो आज हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेंगे की किस प्रकार से हम अपने प्रकृति को पहचाने और विकृति से दूर हो सहज और सरल बन सके। 

सबसे पहले हमारे मन में ये प्रश्न उठता है की हमारी प्रकृति क्या है ? तो इस प्रश्न  का उत्तर इतना भी सरल नहीं की आपको झट से दे दिया जाये।  क्योकि आज मनुष्य प्रतिस्पर्धा की दौड़ इतना आगे बढ़ चूका है की अगर ऐसे प्रश्नो का उत्तर सरलता से दे भी दिया जाये तो भी उसका मन उसे स्वीकार नहीं करता।  तो  इस विषय में हम विस्तार से चर्चा करेंगे ताकि आपके इस मन को ये बाते सरलता से समझ आ सके, जो कही विलासिता के मार्ग में भटक चूका है।

हम सब ने सुना है की पानी की  प्रकृति शीतलता है, उसी प्राकर मनुष्य के भी कुछ विशेष  प्रकृतियाँ है , जिसे जानने के बाद आपको इसे ढूंढने के लिए बहार नहीं जाना पड़ेगा , बल्कि आप स्वतः ही इसे अपने अन्तः से प्राप्त कर लोगे। तो आइये इन प्रकृतियों को एक एक कर विस्तार से जानते हैं और इसपर सही से नियत्रण कर इसे विकृत होने से बचाएं। 

वैसे तो हम अपने को एक शरीर के रूप में अधिक महत्व देना शुरू कर दिया जिससे हम अपने वास्तविक रूप को भूल गए और यही कारण  है की आज हम अपने जीवन से तंग हो चुके है , आज हम थोड़े से कार्य करने पर थक जाते है।  हमारा मन आज ढेर सारी चिंताओं से ग्रसित है जिसके  कारण  हम विभिन्न प्रकार के बिमारिओं से ग्रसित होते है और मनोरोगी बन बैठे हैं।  किन्तु ऐसा नहीं है की इससे पार नहीं पाया जा सकता।  अगर अपने आप को पहचान कर अपने प्रकृतिओं का अध्यन करें तो हम इनपर विजय प्राप्त कर सकते है।  

सबसे पहले तो ये जानने की आवश्यकता  है की हम एक आत्मा है और शरीर हमारा वस्त्र जो आज है कल नहीं होगा।  किन्तु आत्मा अजन्मा है ये नित नए नए वस्त्र धारण कर इस विस्वा में भ्रमण करने आती रहेगी और जाती रहेगी।  किन्तु एक चीज़ है जो वो साथ लेकर आएगी और साथ लेकर जाएगी वो है अपने प्रकृतिओं और विकृतिओं का अनुभव।  अगर एक व्यक्ति अपने आत्म प्रकृतिओं में जियेगा तो मरने के बाद भी वो उसके साथ जायेंगी ठीक वैसे ही उस व्यक्ति की जो विकृतिओं में जियेगा।  लेकिन अगर इसे समय रहते सुधर लिया जाये तो व्यक्ति हर जीवन में आनंद से जियेगा और मरेगा भी।  तो आत्मा के ये कुछ विशेष  प्रकृतियाँ है जिसको जानना जरूरी है। 

आत्मा  एक ऊर्जा है जो ईश्वरीय ऊर्जा से ही बनी तो ये तो जरूरी है की हम सबमे ये विशेष प्रकृतियाँ उपलब्ध है जो परमात्मा में है। ये सारी प्रकृतियाँ कुछ इस प्रकार है जैसे प्रेम , आनंद , ज्ञान , शांती , शक्ति , सुख , पवित्रता।  अगर इनपर विशेष ध्यान दिया जाये तो इस जीवन को स्वर्ग के सामान जिया जा सकता है। आइये सभी प्रकरीओं का विशेष अध्यन करें। 

प्रेम - प्रेम आत्मा की एक अनमोल प्रकृति है जिसके द्वारा ही संसार लोगो से जुड़ता है , विश्वास करता है।  लेकिन अगर हम इसे विकृति की ज्वाला में झोक देंगे तो प्रेम नहीं केवल व्यसन ही हमारे समंधो का आधार होगी।  जोकि विशेष तोर पर आज हो रही है , आज लोग प्रेम से नहीं  बल्कि प्रयोजन से समबन्ध बनाते हैं।  प्रयोजन पूरा होते ही ही सम्बन्ध तोड़ देते है , जो की हमारे आत्मा के प्रकृति पर कुठाराघात  है। तो अगर आप सत्य भाव से प्रेम  करना चाहते है तो निष्काम प्रेम को महत्वा दे जिसमे कोई लालशा नहीं हो। 


आनंद
- आनंद कौन नहीं चाहता , आनंद के बिना तो जीवन की परिकल्पना की ही नहीं जा सकती।  आनंद की चाह  ने ही आज बड़े से बड़े आविष्कारों को जन्म दिया। आनंद ही आत्मा की वो विशेष प्रकृति है जो परमात्मा अनुभूतिओं से मनुष्य को साक्षात्कार कराती है।  लेकिन आज  आनंद की भी परिभाषा  बदल चुकी है आज इसका रूप भी विकृत हो चूका है , आज आनंद व्यसन का आधार बन चुकी है।  हम आनंद प्राप्ति को साधन के रूप में देखने लगे है , हमे लगता है की हम किसी वस्तु , व्यक्ति या सफलता के द्वारा ही इसे प्राप्त कर सकते है। लेकिन ये सरासर झूठ है।  ये विशेष प्रकृति हमारे भीतर ही उपलब्ध है और हम इसे परमत्मा जुड़ाव से ही विकसित कर सकते है। 

ज्ञान - ज्ञान का महत्व सिर्फ आज ही नहीं बल्कि युगों युगों  से है , क्योकि यह  जीवन का आधार है और आता की विशेष प्रकृति है ।  ज्ञान के बल से ही मनुष्य अपना एवं अपने संबधिओं का भरण पोषण कर सकता है।  ज्ञान का अर्थ सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं है बल्कि किसी भी कार्य में निपुणता  प्राप्त करना , ठीक वैसे ही जैसे एक कुम्हार मिट्टी के वस्तु बनाने में निपुण होते हैं। लेकिन आज ज्ञान एक विकृति के रुप  में  सिर्फ भरण पोषण का ही आधार बन गया है जबकि ज्ञान का विशेष मार्ग तो स्वयं और परमात्मा को जानना है। 

शांति - शांति आत्मा की वो विशेष प्रकृति है जो की मनुष्य के जीवन को स्वर्ग के समान बनाती है।  एक व्यक्ति जितना शांत होगा वो उतना ही सहनशील होगा और उसके सम्बन्धो में मधुरता होगी। और सत्य तो ये है की ये प्रकृति भी हमारे भीतर ही विद्यमान है। बस इसके विकृतिओं के बारे में जानकर अगर इसके सुधर पर विशेष ध्यान दिया जाये तो हमारा जीवन सुंदर बन सकता है।  विशेषतौर पर शांति की विकृति है क्रोध आज हम क्रोध को अधिक महत्व देने लगे है , हमे लगता है की आज के युग में बिना गुस्सा किया बात नहीं बनती , तो आपको आज से ही ध्यान में बैठने और ईश्वर से संपर्क साधना चाहिए। 

शक्ति - आत्मा के सबसे महत्वपूर्ण पप्रकृतिओं में से एक है शांति जिसके आधार पर ही पौरुष  सिद्धांतों को जिया जा  सकता है। शक्ति है तब ही कार्य को पूरा करने का साहस है यही वो बल है जो एक व्यक्ति को सफल एवं महान बनाता है।  लेकिन आज शक्ति का विकृत रूप समाज की दुर्दशा का कारण है, आज शक्ति का अर्थ है आप कितने धनवान हो, आपको कितने लोग जानते है , आपका पद क्या है।  तो आज से ये प्रण लें की अपने शक्ति की इस प्रकृति को सुधारेंगे और उन लोगों के लिए कार्य करेंगे जो अपना भरण पोषण करने में अषमर्थ  हैं। 

सुख - सुख का अर्थ है संतुष्टि और ये तब आती है जब आप ने उस विशेष कार्य को पूरा कर लिया है जो भी आपका लक्ष्य है।  हम सब अपने जीवन में कोई न कोई लक्ष्य बनाते है तक उसे पूरा कर हम संतुष्ट  हो और हमें सुख की अनुभूति हो।  लेकिन हमारी ये अवधारणा भी विकृत है और किसी विशेष प्रयोजन से प्राप्त हमारी संतुष्टि भी क्षणिक है , क्योंकी आत्मा तब तक संतुष्ट नहीं होगी जबतक वह ईश्वर प्राप्ति न कर ले, वह भागती ही रहेगी। 

पवित्रता - पवित्रता को आत्मा की सबसे विशेष प्रकृति के रुप में देखा जाता है क्योकि जितने भी आत्म प्रकृतिओं की हमने चर्चा की उनके विकृत होने का कारण भी यही पवित्रता ही है। क्योकि इसके टूटते ही हम मोह एवं माया से जुड़ते है और उन सभी प्रकृतिओं को विकृत कर देते है जो कभी हमारे जीवन को आनंद प्राप्त कराती थी।  हम जब तन बाल्य अवस्था में कितने सरल , आनंदित थे।  किन्तु जैसे ही हमने युवा अवस्था को प्राप्त किया हम उन विकार भरे विचारो से ग्रसित होने लगे जो आत्मा पवित्रता के लिए घातक होती है। तो इसपर पर तभी पाया जा सकता है जब हम परमात्मा से लगाव बढ़ाएंगे और योग को अपने जीवन का आधार बनाएंगे। 

 

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